Wednesday, May 14, 2025
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वन पंचायतों को सशक्त बनाने की चुनौतियां और हर्बल मिशन

NTI: उत्तराखंड में वन पंचायतें ग्रामीण आजीविका और जंगल संरक्षण का एक अनूठा मॉडल रही हैं, लेकिन उनकी प्रासंगिकता को बनाए रखने के लिए सरकार ने हाल ही में “हर्बल मिशन” योजना की घोषणा की है। यह योजना वन पंचायतों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने और स्थानीय समुदायों की आजीविका बढ़ाने का प्रयास है। हालांकि, ग्रामीणों और वन विभाग के बीच टकराव, नीतिगत कमियां और संसाधनों का अभाव इस दिशा में बड़ी चुनौतियां हैं।

वन पंचायतों का उद्भव

ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में जंगलों का व्यावसायिक दोहन शुरू हुआ, जिसके लिए स्थानीय समुदायों के पारंपरिक वन हकों को सीमित किया गया। 1878 के वन कानून ने “रिजर्व फॉरेस्ट” की अवधारणा पेश की, जिसके तहत जंगलों का उपयोग केवल सरकार के हित में किया जा सकता था। इससे स्थानीय लोगों की आजीविका पर गहरा असर पड़ा, क्योंकि पहाड़ी समुदाय खेती से ज्यादा जंगलों पर निर्भर थे। पशु चराई, चारा और लकड़ी के लिए जंगल उनके जीवन का आधार थे।

इन प्रतिबंधों के खिलाफ 1911 से 1921 तक बड़े पैमाने पर आंदोलन हुए। बच्चों और महिलाओं सहित ग्रामीणों ने विरोध किया, जेल गए और जुर्माने सहे। अंततः, 1921 में ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा और फॉरेस्ट ग्रीवेंस कमेटी का गठन किया गया। कमेटी की सिफारिशों के आधार पर जंगलों को दो हिस्सों में बांटा गया: टिम्बर (चीड़, देवदार) वाले जंगल वन विभाग को सौंपे गए, जबकि चौड़ी पत्ती वाले जंगल (बांज, बुरांश) सिविल फॉरेस्ट के रूप में सिविल प्रशासन के अधीन आए। इन सिविल जंगलों में स्थानीय समुदायों को हक देने के लिए 1931 में वन पंचायत व्यवस्था की शुरुआत हुई।

वन पंचायतों में गांव के पांच चुने हुए सदस्य, जिनमें एक सरपंच होता था, स्थानीय जंगल का प्रबंधन करते थे। यह व्यवस्था ग्रामीणों को उनके पारंपरिक हकों को संरक्षित करने का अधिकार देती थी।

वर्तमान चुनौतियां

समय के साथ वन पंचायतों की प्रासंगिकता कम होती गई। ग्रामीणों और वन विभाग के बीच टकराव, स्पष्ट नियमावली की कमी और आजीविका के नए साधनों का अभाव प्रमुख समस्याएं हैं। चीड़ जैसे व्यावसायिक जंगलों से स्थानीय लोगों को कम लाभ मिलता है, जबकि चौड़ी पत्ती वाले जंगल ग्रामीणों की जरूरतों को पूरा करने में सीमित हैं। साथ ही, गैस और कम पशुधन के कारण जंगलों पर निर्भरता घट रही है, जिससे वन पंचायतों के प्रति लोगों का लगाव कम हुआ है।

सरकार ने समय-समय पर योजनाएं शुरू कीं, लेकिन बिना जमीनी तैयारी और स्थानीय भागीदारी के ये योजनाएं असफल रहीं। उदाहरण के लिए, अरबों रुपये के निवेश के बावजूद जड़ी-बूटी स्वस्थ संस्थान की स्थिति आज दयनीय है।

हर्बल मिशन: एक नई उम्मीद

हर्बल मिशन वन पंचायतों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने का एक प्रयास है। इसके तहत जड़ी-बूटी खेती, चारा प्रजातियों का विकास और इको-टूरिज्म को बढ़ावा देने की योजना है। कुछ प्रमुख प्रस्ताव हैं:

  1. जड़ी-बूटी खेती: वन पंचायतों की जमीनों पर शतावरी, जेरेनियम, रोजमरी, हल्दी और अदरक जैसी व्यावसायिक जड़ी-बूटियों की खेती को बढ़ावा देना। इससे रोजगार सृजन और आय में वृद्धि होगी।

  2. चारा प्रजातियां: शहतूत और ठी जैसी चारा प्रजातियों को छोटे पौधों के रूप में उगाकर पशुपालकों की जरूरतें पूरी करना। इससे मानव-वन्यजीव संघर्ष भी कम होगा।

  3. इको-टूरिज्म और कुटीर उद्योग: बांस, रिंगाल और स्थानीय हस्तशिल्प पर आधारित छोटे उद्योग शुरू करना। इथनो-बॉटनी सत्रों के जरिए पर्यटकों को स्थानीय वनस्पतियों की जानकारी देना।

  4. स्थानीय संसाधनों का उपयोग: चीड़ के जंगलों से लीसा, बुलिया और लकड़ी जैसे उत्पादों में ग्रामीणों की हिस्सेदारी सुनिश्चित करना।

हर्बल मिशन की सफलता के लिए निम्नलिखित कदम जरूरी हैं:

  • स्पष्ट नियमावली: वन पंचायतों के लिए एक पारदर्शी और समावेशी नियमावली बनाना, जिसमें हितधारकों के अधिकार और जिम्मेदारियां स्पष्ट हों।

  • जमीनी तैयारी: परियोजनाओं को लागू करने से पहले स्थानीय मिट्टी, जलवायु और बाजार की मांग का अध्ययन करना। छोटे पैमाने पर पायलट प्रोजेक्ट शुरू करना।

  • बाजार व्यवस्था: छोटे और बड़े स्तर पर जड़ी-बूटियों की खरीद की गारंटी देना। सरकार को न्यूनतम खरीद की जिम्मेदारी लेनी होगी।

  • स्थानीय भागीदारी: ग्रामीणों को परियोजनाओं में सक्रिय भागीदार बनाना, ताकि वे जंगलों से जुड़ाव महसूस करें।

  • वन विभाग की भूमिका में बदलाव: वन विभाग को मालिकाना हक की बजाय सहायक की भूमिका में लाना, जैसा कृषि विभाग करता है।

वन पंचायत व्यवस्था को पूरे देश में लागू करने की संभावना है। यह न केवल ग्रामीण आजीविका को बढ़ावा दे सकती है, बल्कि वन विभाग और समुदायों के बीच की दूरी को भी कम कर सकती है। उत्तराखंड में पलायन एक बड़ी समस्या है, और मैनपावर की कमी के कारण जंगल खाली हो रहे हैं। वन पंचायतों को सशक्त बनाकर इस समस्या का समाधान किया जा सकता है।

वन पंचायतें उत्तराखंड के विकास में बहुत बड़ी भूमिका निभा सकती हैं, बशर्ते सरकार और समुदाय मिलकर काम करें। जैसा कि ग्रामीणों का कहना है कि “अगर हमें लाभ मिलेगा, तो हम जंगल को अपना समझेंगे।” यह समय है कि वन पंचायतों को केवल नीतियों का हिस्सा न बनाकर, ग्रामीणों की आजीविका और पहाड़ों के भविष्य का आधार बनाया जाए।

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