NTI (देहरादून): उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में अपनी बेबाक राजनीति और भ्रष्टाचार के खिलाफ मुखर रुख के लिए मशहूर लैंसडाउन विधायक महंत दिलीप रावत एक बार फिर सुर्खियों में हैं। जनहित के मुद्दों को बिना किसी हिचक के उठाने वाले इस विधायक ने हाल ही में दून मेडिकल कॉलेज और दून अस्पताल के निर्माण कार्यों में अनियमितताओं का मामला उठाया, लेकिन 22 दिनों बाद खुद ही इस मामले को क्लीन चिट देकर चर्चा में आ गए। उनकी इस हरकत ने उन्हें “उत्तराखंड का दयालु विधायक” का खिताब दिला दिया है।
पांच मई को उठा मुद्दा
5 मई 2025 को विधायक महंत दिलीप रावत ने मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को एक पत्र लिखकर दून मेडिकल कॉलेज और दून अस्पताल के निर्माण कार्यों में गंभीर खामियों की ओर ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने बताया कि उनके संज्ञान में लाया गया है कि निर्माण कार्यदायी संस्था, उत्तर प्रदेश राजकीय निर्माण निगम, द्वारा निर्मित भवनों में कई तकनीकी कमियां सामने आई हैं। खास तौर पर इलेक्ट्रिकल कार्यों में अनियमितताएं उजागर हुईं, जहां भारतीय मेक के उपकरणों का उपयोग किया गया, जबकि कार्य आयातित मेक का होना चाहिए था। इसमें ऑपरेशन थिएटर (ओटी), सेंट्रल स्टेराइल सप्लाई डिपार्टमेंट (सीएसएसडी), और वीसीबी पैनल जैसे महत्वपूर्ण कार्य शामिल थे।
विधायक ने अपने पत्र में लिखा, “उक्त कार्यों में कई अनियमितताएं पाई गई हैं, जिससे प्रतीत होता है कि कुछ अधिकारियों की मिलीभगत के कारण सरकारी धन का दुरुपयोग किया गया है।” उन्होंने मुख्यमंत्री से मांग की कि इन अनियमितताओं की उच्च स्तरीय जांच कराई जाए ताकि दोषियों को सामने लाया जा सके और सरकारी धन के दुरुपयोग पर अंकुश लगाया जा सके।
22 दिन बाद बदला रुख
महंत दिलीप रावत की इस शिकायत ने शुरू में उम्मीद जगाई कि दून मेडिकल कॉलेज और अस्पताल के निर्माण में हुई कथित अनियमितताओं की गहन जांच होगी। हालांकि, 27 मई 2025 को विधायक ने मुख्यमंत्री को एक और पत्र लिखा, जिसमें उनका रुख पूरी तरह बदल गया। उन्होंने लिखा कि दून मेडिकल कॉलेज का ओटी और इमरजेंसी ब्लॉक अप्रैल 2022 से उपयोग में है और 11 नवंबर 2022 को मुख्यमंत्री द्वारा इसका लोकार्पण भी किया गया था। पत्र में उन्होंने दावा किया कि ओटी, इमरजेंसी भवन, और ओपीडी सुचारू रूप से चल रहे हैं।
उन्होंने आगे कहा, “कुछ व्यक्तियों द्वारा मुझे अनियमितताओं की जानकारी दी गई थी, लेकिन विद्युत इकाई ने आश्वासन दिया है कि सभी कार्य गुणवत्ता के साथ पूरे किए गए हैं।” इस पत्र के जरिए विधायक ने न केवल अपनी शिकायत को कमजोर किया, बल्कि बिना किसी औपचारिक जांच के मामले को क्लीन चिट दे दी।
सवालों के घेरे में विधायक की मंशा
विधायक के इस रुख ने कई सवाल खड़े किए हैं। जब उन्होंने पांच मई को मुख्यमंत्री से उच्च स्तरीय जांच की मांग की थी, तो क्या वे इस जांच के परिणाम का इंतजार नहीं कर सकते थे? यदि अनियमितताओं की शिकायत इतनी गंभीर थी कि उसे मुख्यमंत्री तक पहुंचाया गया, तो फिर 22 दिनों में ही मामले को रफा-दफा करने की जल्दबाजी क्यों? क्या विद्युत इकाई का आश्वासन ही पर्याप्त था, या इसके पीछे कोई और कारण है?
स्थानीय लोगों और विश्लेषकों का मानना है कि विधायक की यह हरकत उनकी बेबाक छवि पर सवाल उठाती है। एक तरफ वे भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने के लिए जाने जाते हैं, वहीं दूसरी तरफ इतने गंभीर मामले में बिना जांच के क्लीन चिट देना उनकी मंशा पर सवाल खड़े करता है। कुछ लोग इसे उनकी “दयालुता” कह रहे हैं, तो कुछ इसे राजनीतिक दबाव या समझौता मान रहे हैं।
खरा उतरने की चुनौती
लैंसडाउन के लोग महंत दिलीप रावत को उनके साहस और जनहित के मुद्दों को उठाने के लिए पसंद करते हैं। उनकी बेबाकी और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई ने उन्हें गढ़वाल में एक मजबूत पहचान दी है। लेकिन इस मामले में उनकी जल्दबाजी और बिना जांच के क्लीन चिट देने का फैसला जनता की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता।
दून मेडिकल कॉलेज और अस्पताल उत्तराखंड की स्वास्थ्य सेवाओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। यदि इनके निर्माण में अनियमितताएं हुई हैं, तो यह न केवल सरकारी धन के दुरुपयोग का मामला है, बल्कि मरीजों की सुरक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता से भी जुड़ा है। ऐसे में, विधायक द्वारा उठाए गए मुद्दे की गंभीरता को देखते हुए एक निष्पक्ष जांच जरूरी थी।
क्या कहते हैं जानकार?
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि महंत दिलीप रावत का यह कदम उनकी छवि को प्रभावित कर सकता है। एक वरिष्ठ पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “विधायक ने पहले तो अनियमितताओं का गंभीर आरोप लगाया, लेकिन बिना जांच के मामले को खत्म कर देना उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाता है। यह जनता को यह संदेश देता है कि शायद यह मुद्दा केवल राजनीतिक लाभ के लिए उठाया गया था।”
वहीं, कुछ स्थानीय लोगों का कहना है कि विधायक की मंशा चाहे जो हो, उनकी यह हरकत उनके जनहित के प्रति समर्पण को कमजोर करती है। एक स्थानीय निवासी ने कहा, “हम अपने विधायक को उनके साहस के लिए जानते हैं। लेकिन इस मामले में उनकी जल्दबाजी समझ से परे है। अगर अनियमितताएं थीं, तो जांच क्यों नहीं कराई गई?”
यह घटना न केवल उनकी बेबाकी पर सवाल उठाती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि जनहित के मुद्दों को उठाने के बाद उसका निष्पक्ष समाधान कितना जरूरी है। क्या यह विधायक की दयालुता थी, या कोई और कारण? यह सवाल उत्तराखंड की जनता के मन में बना रहेगा।