NTI: देहरादून शहर की हरियाली को बचाने के लिए शुरू किया गया महत्वाकांक्षी पेड़ ट्रांसप्लांटेशन ऑपरेशन नाकाम साबित हुआ है। सड़क चौड़ीकरण परियोजनाओं के तहत हजारों वर्षों पुराने पेड़ों को उखाड़कर शहर के विभिन्न हिस्सों में दोबारा रोपा गया, लेकिन यह महंगा प्रयास विफल रहा। आंकड़ों के मुताबिक, 70 से 80 प्रतिशत ट्रांसप्लांट किए गए पेड़ सूख गए, जिसके बाद इस ऑपरेशन की सफलता और खर्च पर सवाल उठने लगे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि यदि इस प्रोजेक्ट को पहले पायलट प्रोजेक्ट के रूप में लागू किया जाता, तो शायद जनता की गाढ़ी कमाई बर्बाद होने से बच सकती थी।
हरिद्वार बाईपास रोड प्रोजेक्ट के तहत सड़क चौड़ीकरण के लिए बड़ी संख्या में पेड़ काटे गए। इनमें से अधिकांश को हाईवे के किनारे या अन्य स्थानों पर ट्रांसप्लांट किया गया। इसके अलावा, बरसात के मौसम में कुछ नए पौधे भी लगाए गए। लेकिन आज स्थिति यह है कि ज्यादातर ट्रांसप्लांट किए गए पेड़ और नए पौधे सूख चुके हैं। आंकड़ों के अनुसार, 10 प्रतिशत पेड़ भी जीवित नहीं रह सके। ये पेड़ अपनी जड़ें जमाने में असफल रहे, जिससे इस प्रोजेक्ट की विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहे हैं।
अन्य प्रोजेक्ट्स में भी यही हाल
देहरादून में विभिन्न सड़क चौड़ीकरण परियोजनाओं के तहत बड़े पैमाने पर पेड़ों को ट्रांसप्लांट किया गया। कुछ प्रमुख आंकड़े इस प्रकार हैं:
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दून-दिल्ली हाईवे: 10,000 पेड़ों में से 4,000 को ट्रांसप्लांट किया गया।
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सहस्रधारा रोड: 3,000 पेड़ों में से लगभग 1,000 ट्रांसप्लांट किए गए।
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हरिद्वार बाईपास हाईवे: 1,000 से अधिक पेड़ों में से लगभग 500 ट्रांसप्लांट किए गए।
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दून-पावंटा रोड: 7,000 पेड़ों में से लगभग 1,500 ट्रांसप्लांट किए गए।
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शहर की आंतरिक सड़कें: चौड़ीकरण के दौरान काटे गए कुछ पेड़ों को अन्य स्थानों पर ट्रांसप्लांट किया गया।
कुल मिलाकर, शहर में 10,000 से अधिक पेड़ों को ट्रांसप्लांट करने का प्रयास किया गया, लेकिन अधिकांश पेड़ जीवित नहीं रह सके।
भारी-भरकम खर्च, नाकाफी नतीजे
पेड़ों को ट्रांसप्लांट करने के लिए करोड़ों रुपये खर्च किए गए। अनुमान के मुताबिक, एक पेड़ को ट्रांसप्लांट करने का औसत खर्च 30,000 रुपये है। इस हिसाब से 10,000 पेड़ों के ट्रांसप्लांटेशन पर लगभग 30 करोड़ रुपये खर्च हुए। इतनी बड़ी रकम के बावजूद, केवल 20 से 30 प्रतिशत पेड़ ही जीवित रह पाए। ट्रांसप्लांटेशन के लिए उपयोग की जाने वाली मशीनें भारत में कम उपलब्ध हैं, जिसके कारण लागत और भी बढ़ गई।
सवालों के घेरे में ऑपरेशन
इस ऑपरेशन की विफलता ने कई सवाल खड़े किए हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि इतने बड़े पैमाने पर ट्रांसप्लांटेशन शुरू करने से पहले एक छोटे स्तर पर पायलट प्रोजेक्ट चलाया जाना चाहिए था। इससे न केवल तकनीकी कमियों का पता चलता, बल्कि जनता के पैसे की बर्बादी भी रोकी जा सकती थी।
देहरादून की हरियाली को बचाने की यह कोशिश न केवल महंगी थी, बल्कि इसके परिणाम भी निराशाजनक रहे। अब शहरवासियों और पर्यावरणविदों की मांग है कि भविष्य में इस तरह के प्रोजेक्ट्स को लागू करने से पहले बेहतर योजना और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया जाए, ताकि पर्यावरण और जनता के पैसे दोनों की रक्षा हो सके।