Monday, April 28, 2025
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नैनीताल हाई कोर्ट ने लिव-इन संबंधों को कहा- “निजता का हनन कहां है?”

NTI: नैनीताल हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जी नरेंद्र की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने सोमवार को समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के तहत लिव-इन संबंधों के अनिवार्य पंजीकरण को चुनौती देने वाली एक याचिका पर सुनवाई की। इस दौरान अदालत ने याचिकाकर्ता की दलीलों पर सवाल उठाते हुए कहा कि राज्य सरकार लिव-इन संबंधों पर रोक नहीं लगा रही है, बल्कि उनके पंजीकरण की शर्त लगा रही है। अदालत ने यह भी पूछा कि जब लिव-इन संबंधों को लेकर कोई रहस्य नहीं है, तो निजता का हनन कैसे हो रहा है?

यह मामला देहरादून निवासी 23 वर्षीय जय त्रिपाठी की याचिका से जुड़ा है, जिसमें उन्होंने यूसीसी के तहत लिव-इन संबंधों के अनिवार्य पंजीकरण को निजता के अधिकार का उल्लंघन बताते हुए चुनौती दी है। याचिका में कहा गया है कि राज्य सरकार ऐसे संबंधों के पंजीकरण को अनिवार्य बनाकर गपशप को संस्थागत रूप दे रही है। याचिकाकर्ता के वकील अभिजय नेगी ने सुप्रीम कोर्ट के 2017 के निर्णय का हवाला देते हुए तर्क दिया कि उनके मुवक्किल की निजता का हनन हो रहा है, क्योंकि वह अपने साथी के साथ लिव-इन संबंधों की घोषणा या पंजीकरण नहीं करना चाहता है।

हालांकि, मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जी नरेंद्र और न्यायमूर्ति आलोक मेहरा की खंडपीठ ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि यूसीसी किसी भी तरह की घोषणा का प्रावधान नहीं करती है, बल्कि यह केवल ऐसे संबंधों के पंजीकरण की बात करती है। मुख्य न्यायाधीश ने टिप्पणी करते हुए कहा, “क्या रहस्य है? आप दोनों एक साथ रह रहे हैं। आपका पड़ोसी जानता है, समाज जानता है, और दुनिया जानती है। फिर आप जिस गोपनीयता की बात कर रहे हैं, वह कहां है? क्या आप गुप्त रूप से, किसी एकांत गुफा में रह रहे हैं? आप नागरिक समाज के बीच रह रहे हैं। आप बिना शादी किए बेशर्मी से साथ रह रहे हैं। फिर वह कौन सी निजता है, जिसका हनन हो रहा है?”

याचिकाकर्ता ने बहस के दौरान अल्मोड़ा की एक घटना का हवाला दिया, जहां एक युवक की हत्या सिर्फ इसलिए कर दी गई क्योंकि वह अंतरधार्मिक लिव-इन संबंध में रह रहा था। इस पर अदालत ने याचिकाकर्ता से कहा कि वह लोगों को जागरूक करने के लिए कुछ काम करें।

खंडपीठ ने आगे कहा कि इस मामले को यूसीसी को चुनौती देने वाली अन्य याचिकाओं के साथ जोड़ा जाएगा। साथ ही अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि अगर किसी के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की जाती है, तो संबंधित व्यक्ति अदालत में आ सकता है। मामले में केंद्र और राज्य सरकार को नोटिस जारी करते हुए अगली सुनवाई 1 अप्रैल तय की गई है।

इस मामले ने लिव-इन संबंधों और निजता के अधिकार के बीच संतुलन बनाने की चुनौती को एक बार फिर उजागर किया है। अदालत की टिप्पणियों से स्पष्ट है कि यूसीसी का उद्देश्य लिव-इन संबंधों पर रोक लगाना नहीं है, बल्कि उन्हें एक कानूनी ढांचे में लाना है। हालांकि, यह मामला अभी लंबित है और भविष्य में इस पर होने वाली सुनवाई से इस विषय पर और स्पष्टता मिलने की उम्मीद है।

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