Wednesday, April 2, 2025
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Decathlon: बिना सेलिब्रिटी और विज्ञापनों के भारत का सबसे बड़ा स्पोर्ट्स ब्रांड कैसे बना?

NTI: स्पोर्ट्स ब्रांड्स की दुनिया में जहां adidas और NIKE जैसे दिग्गज अपने बड़े-बड़े रेवेन्यू के साथ छाए हुए हैं—एडिडास ने तो 15,551 करोड़ रुपये की कमाई की है—और इन ब्रांड्स को मशहूर सेलिब्रिटीज प्रमोट करते हैं, वही एक नाम ऐसा है जो सबसे अलग है, Decathlon। आज डेकैथलॉन भारत का सबसे बड़ा स्पोर्ट्स ब्रांड बन चुका है, वो भी बिना किसी सेलिब्रिटी एंडोर्समेंट या मोटे मार्केटिंग बजट के। न कोई चमचमाते विज्ञापन, न कोई सुपरस्टार—फिर भी डेकैथलॉन ने भारतीय बाजार पर कब्जा कर लिया। सवाल ये है कि बिना मार्केटिंग बजट और सेलिब्रिटी के डेकैथलॉन इतना बड़ा ब्रांड कैसे बना? इसके पीछे क्या खास बात है?
1990 के भारत के स्पोर्ट्स मार्केट को समझें
डेकैथलॉन की सफलता को समझने के लिए हमें 1990 के भारत के स्पोर्ट्स मार्केट में झांकना होगा। अगर आप 90 के दशक के बच्चे हैं, तो आपको गर्मियों की छुट्टियां याद होंगी—सुबह क्रिकेट, दोपहर में रसना, और शाम को फिर क्रिकेट। 2008 के बाद ये रूटीन थोड़ा बदला—सुबह क्रिकेट, दोपहर में रसना, और शाम को IPL। लेकिन उस वक्त जब हम टेनिस बॉल खरीदते थे, तो क्या कभी ब्रांड की परवाह करते थे? बिल्कुल नहीं। उस समय ब्रांडेड तो दूर, अनब्रांडेड बॉल के लिए भी जेब से सिक्के निकालकर छोटी दुकानों से खरीदना पड़ता था।
ये छोटी दुकानें—जिन्हें हम “चाचा की दुकान” कहते थे—हमारी स्पोर्ट्स जरूरतों का ठिकाना थीं। वहां जो मिलता था, वो बहुत सीमित था—ज्यादा से ज्यादा MRF के बैट, किसी चाइनीज कंपनी का फुटबॉल, या Nivia के बैडमिंटन रैकेट। क्रिकेट, फुटबॉल, और बैडमिंटन के अलावा कुछ और मिलना मुश्किल था। दूसरी तरफ, अमीर लोग बड़े मॉल्स में नाइकी, एडिडास, और रिबॉक से खरीदारी करते थे, लेकिन वहां भी क्रिकेट और फुटबॉल के अलावा ज्यादा ऑप्शन्स नहीं थे। यहीं पर डेकैथलॉन ने एक बड़ा मौका देखा।
डेकैथलॉन का कस्टमर सेगमेंटेशन
जब पूरी दुनिया को भारत में सिर्फ क्रिकेट और फुटबॉल दिखता था, डेकैथलॉन ने बाजार को चार हिस्सों में बांटा:
  1. हम जैसे लोग—जिनके पास खेलने का स्किल तो था, लेकिन ब्रांडेड प्रोडक्ट्स खरीदने के लिए पैसे नहीं।
  2. वो जिनके पास न स्किल है, न पैसे—जैसे वो बच्चा जो अपना बैट कभी नहीं लाता, क्योंकि उसे पता है कि वो 5 रन से ज्यादा नहीं बनाएगा।
  3. अमीर लोग, जिन्हें खेलने से ज्यादा दिखाने का शौक है—ये वो हैं जो नाइकी खरीदते हैं, लेकिन उसे सीरियसली नहीं लेते।
  4.  पैसे वाले प्रोफेशनल खिलाड़ी, जो सिर्फ टॉप ब्रांड्स यूज करते हैं।
2000 से 2010 तक बड़े ब्रांड्स सिर्फ एलिट्स और कैजुअल्स को टारगेट करते थे, क्योंकि यही ऑडियंस पैसे खर्च करती थी। लोकल दुकानें होपफुल्स और बिगिनर्स को सस्ता सामान बेचती थीं। 2012 में भारत का स्पोर्ट्स मार्केट 16,000 करोड़ का था, जिसमें 75% हिस्सा अनऑर्गनाइज्ड सेक्टर का था। लोग कहते थे, “ब्रांडेड मार्केट को पकड़ो, मिडिल क्लास को सिर्फ सस्ता चाहिए।” लेकिन डेकैथलॉन ने सबको चौंका दिया।
 हर खेल के लिए सस्ते और टिकाऊ प्रोडक्ट्स
2009 में भारत आने पर डेकैथलॉन ने नाइकी और एडिडास के छोटे ब्रांडेड मार्केट में न उलझकर अनब्रांडेड मार्केट को चुना। इसने होपफुल्स और बिगिनर्स के लिए सस्ते, टिकाऊ प्रोडक्ट्स बनाए—वो भी हर खेल के लिए। आज डेकैथलॉन स्टोर में जाएं, तो क्रिकेट, फुटबॉल, टेनिस, और बैडमिंटन के अलावा स्विमिंग, स्क्वैश, और स्कीइंग तक के प्रोडक्ट्स मिलेंगे। ये थी उनकी पहली स्ट्रैटेजी—सिर्फ लोकप्रिय खेलों तक सीमित न रहकर हर स्पोर्ट के लिए किफायती और अच्छी क्वालिटी का सामान देना।
 स्टोर डिजाइन के तीन राज
डेकैथलॉन के स्टोर सिर्फ दुकानें नहीं, खेल के मैदान हैं। इनके डिजाइन में तीन खास बातें हैं:
  • टच एंड फील: स्टोर में हर सेक्शन इतना बड़ा होता है कि आप वहां प्रोडक्ट्स को आजमा सकते हैं। क्रिकेट खेलना शुरू कर दें, तो भी कोई नहीं रोकेगा। क्यों? क्योंकि जब आप प्रोडक्ट को छूते हैं, तो उसे खरीदने की संभावना बढ़ जाती है। इसे “एंडोमेंट इफेक्ट” कहते हैं—इससे प्रोडक्ट की वैल्यू आपके दिमाग में 60% तक बढ़ जाती है।
  • ट्रस्ट बनाना: लोकल दुकानदार आपका बजट पूछकर सबसे महंगा सामान थमाते हैं। डेकैथलॉन में कर्मचारी पहले आपका खेल का अनुभव पूछते हैं। बिगिनर हैं, तो ₹5,000 के जूते चाहें तो भी वो ₹2,000 वाले ही सुझाएंगे। आपका पैसा बचता है, और उनका ट्रस्ट बनता है। अगली बार आप कहां जाएंगे?
  • प्रोडक्ट प्लेसमेंट: सस्ते प्रोडक्ट्स दरवाजे पर रखे जाते हैं, जिससे आप अंदर आते ही 30 मिनट घूमते हैं और कुछ न कुछ खरीद लेते हैं। दो साल की वारंटी और आसान रिटर्न पॉलिसी से संतुष्टि पक्की।
 इनोवेशन पर फोकस
डेकैथलॉन विज्ञापनों पर पैसा खर्च नहीं करता, बल्कि प्रोडक्ट इनोवेशन में लगाता है। उनकी “इनोवेशन क्वाड्रेंट” स्ट्रैटेजी में चार हिस्से हैं:
  • छोटे सुधार: लोकल टॉर्च में 30 लुमेन और 20 घंटे की बैटरी होती है। डेकैथलॉन ने उसी कीमत में इसे बेहतर बनाया।
  • टेक्निकल इनोवेशन: ऑटोमैटिक गियर वाली साइकिल लाए, जो पहाड़ों और मैदानों में आसानी देती है।
  • यूजर एक्सपीरियंस: ट्रैकिंग गियर को 15-20% हल्का बनाया, जो ट्रैकर्स के लिए बड़ी राहत है।
  • ब्रेकथ्रू इनोवेशन: 2 सेकंड में तैयार होने वाला टेंट—10,000 फीट की चढ़ाई के बाद ये किसी चमत्कार से कम नहीं।
20-30% डिस्काउंट कैसे?
बड़े ब्रांड्स प्रोडक्ट की लागत का 30% मार्केटिंग पर खर्च करते हैं। ₹100 का जूता ₹30 में बनता है, बाकी मार्केटिंग और प्रॉफिट में जाता है। डेकैथलॉन इसे ₹70 में बेचता है, मार्केटिंग पर खर्च शून्य। कस्टमर सस्ता और अच्छा प्रोडक्ट देखकर 10 लोगों को बताता है—वर्ड ऑफ माउथ से मार्केटिंग हो जाती है। साथ ही, वो प्रोडक्ट्स को लगातार बेहतर बनाते हैं।
 मार्केट लीडर
अनब्रांडेड मार्केट को टारगेट कर, मार्केटिंग का पैसा बचाकर, और इनोवेशन में निवेश कर डेकैथलॉन ने भारत और दुनिया के लिए वर्ल्ड-क्लास प्रोडक्ट्स बनाए। आज ये भारत में मार्केट लीडर है।
डेकैथलॉन से सीख
  1. अनदेखा मार्केट ढूंढो: जहां बाकी ब्रांड्स ब्रांडेड सेगमेंट पर फोकस कर रहे थे, डेकैथलॉन ने अनब्रांडेड मार्केट पर कब्जा किया।
  2. टच एंड फील की ताकत: भारत में ऑनलाइन शॉपिंग बढ़े, लेकिन फिजिकल स्टोर का जादू कभी कम नहीं होगा।
  3. प्रोडक्ट इनोवेशन पहले: मार्केटिंग से ज्यादा जरूरी प्रोडक्ट है। अच्छा प्रोडक्ट खुद बिकता है।
डेकैथलॉन की कहानी सिर्फ स्पोर्ट्स गियर की नहीं, बल्कि एक ऐसे ब्रांड की है जो कस्टमर और इनोवेशन को पहले रखता है। यही इसकी जीत का राज है—बिना किसी विज्ञापन के।
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