NTI (मोहन भुलानी ): अमेरिका का डॉलर आज दुनिया की सबसे मजबूत मुद्रा मानी जाती है, लेकिन इसके पीछे एक लंबा और रोचक इतिहास छिपा हुआ है। 20वीं सदी के मध्य में अमेरिका ने अपने डॉलर को वैश्विक मुद्रा के रूप में स्थापित करने के लिए एक अनोखी रणनीति अपनाई, जिसमें गोल्ड (सोना) और डॉलर का गहरा संबंध था। लेकिन यह रणनीति हमेशा सफल नहीं रही, और एक ऐसी स्थिति आई जब अमेरिका को अपनी ही बनाई व्यवस्था को बचाने के लिए कठोर कदम उठाने पड़े।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, अमेरिका ने ब्रेटन वुड्स समझौते के तहत अपने डॉलर को गोल्ड से जोड़ दिया। इस समझौते के अनुसार, अमेरिका ने वादा किया कि वह 35 डॉलर के बदले 1 औंस गोल्ड देगा। इससे डॉलर को वैश्विक मान्यता मिली, क्योंकि दुनिया भर के देशों को विश्वास था कि वे अपने डॉलर को गोल्ड में बदलवा सकते हैं।
हालांकि, अमेरिका ने इस व्यवस्था का फायदा उठाते हुए अपने पास मौजूद गोल्ड से कहीं अधिक डॉलर छापने शुरू कर दिए। इसका मतलब यह था कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में अमेरिका के पास जितना गोल्ड था, उससे कहीं अधिक डॉलर चलन में आ गए। यह रणनीति तब तक काम करती रही, जब तक कि एक संभावित खतरा सामने नहीं आया।
अमेरिका को डर था कि अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में गोल्ड की कीमतें बढ़ जाएं, तो दुनिया भर के देश एक साथ अपने डॉलर को गोल्ड में बदलवाने की मांग कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में, अमेरिका के पास पर्याप्त गोल्ड नहीं होगा, और उसकी आर्थिक स्थिरता खतरे में पड़ जाएगी। इस संभावित संकट से निपटने के लिए, अमेरिका ने एक चालाक योजना बनाई।
अमेरिका ने अपने करीबी आठ देशों के साथ मिलकर एक “गोल्ड पूल” बनाया। इन देशों ने अमेरिका से कर्ज ले रखा था और उसके साथ मजबूत आर्थिक संबंध थे। इस पूल का उद्देश्य लंदन की गोल्ड मार्केट, जो दुनिया की सबसे बड़ी गोल्ड मार्केट है, में गोल्ड की मांग और आपूर्ति को नियंत्रित करना था। इस तरह, अमेरिका चाहता था कि गोल्ड की कीमतें स्थिर रहें और कोई भी देश एक साथ गोल्ड की मांग न करे।
हालांकि, 1967 तक यह योजना विफल होने लगी। गोल्ड पूल में शामिल देशों को नुकसान होने लगा, और वे इस व्यवस्था से नाखुश हो गए। एक-एक करके ये देश गोल्ड पूल से बाहर निकलने लगे। इस घटना ने अमेरिका को बहुत निराश कर दिया, क्योंकि उसकी पूरी योजना धरी की धरी रह गई।
गोल्ड पूल के विफल होने के बाद, अमेरिका ने एक और कठोर कदम उठाया। उसने ब्रिटेन की महारानी से संपर्क किया और लंदन के गोल्ड एक्सचेंज को बंद करने के लिए मनाने में सफल रहा। इसके बाद, लंदन की गोल्ड मार्केट को अस्थायी रूप से बंद कर दिया गया। यह कदम अमेरिका के लिए जरूरी था, क्योंकि वह गोल्ड की बढ़ती मांग और कीमतों को नियंत्रित करना चाहता था।
यह घटना अमेरिका की आर्थिक रणनीतियों और वैश्विक मुद्रा प्रणाली में उसकी भूमिका को दर्शाती है। अमेरिका ने अपने डॉलर को वैश्विक मान्यता दिलाने के लिए गोल्ड का इस्तेमाल किया, लेकिन जब यह व्यवस्था खतरे में पड़ी, तो उसने कठोर कदम उठाए। यह इतिहास हमें यह समझाता है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में शक्ति और नियंत्रण के लिए कितनी जटिल रणनीतियों का इस्तेमाल किया जाता है। आज भी डॉलर और गोल्ड के बीच का यह रिश्ता अंतरराष्ट्रीय आर्थिक नीतियों को प्रभावित करता है।