NTI: उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित धौली गंगा बेसिन में एक बेनाम ग्लेशियर का क्षेत्रफल बढ़ने की घटना ने वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों का ध्यान आकर्षित किया है। यह घटना विशेष रूप से इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते विश्वभर में अधिकांश ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जबकि यह ग्लेशियर अपने क्षेत्र को “एरिया सर्ज” प्रक्रिया के माध्यम से बढ़ा रहा है।
यह बेनाम ग्लेशियर लगभग 48 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल का है और समुद्र तल से 6,550 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह रांडोल्फ और रेकाना ग्लेशियर के पास नीती घाटी में स्थित है। वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी (WIHG) के वैज्ञानिकों ने इसका अध्ययन किया और पाया कि यह ग्लेशियर पिछले कुछ वर्षों में असामान्य रूप से आगे बढ़ा है।
साल दर साल विस्तार
- 2011-12 में 15.59 मीटर प्रति वर्ष की दर से विस्तार हुआ।
- 2018-19 में यह दर 55.94 मीटर प्रति वर्ष तक पहुंच गई।
- सितंबर-अक्टूबर 2019 के बीच केवल एक महीने में इसने 863.49 मीटर का विस्तार किया।
- हालांकि, हाल के वर्षों (2021-22) में इसकी गति धीमी होकर 17.58 मीटर प्रति वर्ष रह गई है
ग्लेशियर के क्षेत्रफल बढ़ने की इस प्रक्रिया को “सर्ज” कहा जाता है। वाडिया इंस्टिट्यूट के वैज्ञानिकों ने सैटेलाइट डेटा का उपयोग कर इसके पीछे निम्नलिखित कारणों की पहचान की:
- हाइड्रोलॉजिकल दबाव: तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पिघलता है और बेसिन में पानी जमा होकर दबाव बनाता है। यह दबाव ग्लेशियर को आगे खिसकने में मदद करता है।
- जियोलॉजिकल प्रभाव: ग्लेशियर के नीचे मौजूद चट्टानों पर तरल पदार्थ की उपस्थिति इसे खिसकने में सहायक होती है।
- बेसिन में झीलों का निर्माण: पिघलते हुए पानी से छोटी झीलें बनती हैं, जिनका दबाव ग्लेशियर को आगे बढ़ाता है
इस अध्ययन का महत्व इसलिए भी है कि यह सर्ज प्रकार के ग्लेशियरों के व्यवहार को समझने और उनसे जुड़ी आपदाओं (जैसे फ्लैश फ्लड) को रोकने में मदद कर सकता है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि इस तरह की घटनाएं निचले इलाकों में बाढ़ जैसी आपदाओं का कारण बन सकती हैं।
ग्लेशियर के क्षेत्र में तेजी से विस्तार के कारण निम्नलिखित आपदाओं का खतरा बढ़ सकता है:
- ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOF): सर्जिंग ग्लेशियर के कारण बर्फ और पानी की बड़ी मात्रा जमा हो सकती है, जिससे अचानक झीलें टूटने (आउटबर्स्ट) की स्थिति बन सकती है। यह निचले क्षेत्रों में विनाशकारी बाढ़ का कारण बन सकता है, जैसा कि हिमालयी क्षेत्रों में पहले भी देखा गया है
- फ्लैश फ्लड्स: सर्जिंग प्रक्रिया के दौरान ग्लेशियर के नीचे जमा पानी अचानक निकल सकता है, जिससे तेज गति वाली बाढ़ आ सकती है
जल संसाधनों पर प्रभाव
- पानी की उपलब्धता: ग्लेशियरों को “पानी के टावर” कहा जाता है क्योंकि वे नदियों को पानी प्रदान करते हैं। हालांकि, सर्जिंग ग्लेशियर से पानी की आपूर्ति अस्थिर हो सकती है। यह कृषि, पीने के पानी और हाइड्रोपावर परियोजनाओं पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है
- दीर्घकालिक जल संकट: यदि ग्लेशियर का विस्तार अस्थायी हो और बाद में यह तेजी से पिघले, तो इससे जल संसाधनों में कमी हो सकती है
पर्यावरणीय प्रभाव
- स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र पर दबाव: बाढ़ और जल प्रवाह में बदलाव स्थानीय वनस्पति और जीव-जंतुओं को प्रभावित कर सकते हैं। इससे जैव विविधता को नुकसान हो सकता है और कुछ प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर आ सकती हैं
- भू-आकृतिक परिवर्तन: नदियों और घाटियों की भू-आकृति बदल सकती है, जिससे भूमि कटाव और स्थायी भू-संरचना परिवर्तन हो सकते हैं
- नुकसान और विस्थापन: बाढ़ से गांवों, सड़कों, पुलों और हाइड्रोपावर प्लांट्स को गंभीर नुकसान हो सकता है। इससे लोगों को विस्थापित होना पड़ सकता है और आर्थिक नुकसान हो सकता है
- आपदा प्रबंधन की चुनौती: इन घटनाओं से निपटने के लिए बेहतर निगरानी प्रणाली और आपदा प्रबंधन योजनाओं की आवश्यकता होगी
उत्तराखंड का यह बेनाम ग्लेशियर जलवायु परिवर्तन और हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र पर शोध के लिए एक महत्वपूर्ण केस स्टडी प्रदान करता है। जहां एक ओर ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते अधिकांश ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर इस तरह की घटनाएं हिमालयी भूगोल और जलवायु विज्ञान को समझने के लिए नई संभावनाएं खोलती हैं।