NTI (मोहन भुलानी) : भारत की धरती पर आयुर्वेद का इतिहास अनादि काल से जुड़ा हुआ है। यह न केवल एक चिकित्सा पद्धति है, बल्कि एक जीवन दर्शन भी है, जो शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को संतुलित करने का मार्ग दिखाता है। फिर भी, एक सवाल बार-बार उठता है कि इसी भारत देश में आयुर्वेद की प्रतिष्ठा में कमी क्यों आई? यह पराभव की स्थिति में क्यों पहुंचा? आज आयुर्वेद लोकप्रिय हो रहा है या फिर इसे छद्म विज्ञान कहकर खारिज करने की कोशिश की जा रही है? इस पर गहन विचार की आवश्यकता है। इस लेख में हम आयुर्वेद के उत्थान और पतन की कहानी को गहराई से समझने की कोशिश करेंगे, जिसमें वैद्य बालेंदु प्रकाश और प्रोफेसर आनंद चौधरी जैसे विद्वानों के अनुभव और विचार शामिल हैं।
आयुर्वेद का पराभव
आयुर्वेद का स्वर्ण युग भारत के प्राचीन काल में देखा जा सकता है, जब आचार्य चरक, सुश्रुत और वाग्भट जैसे महान चिकित्सकों ने इसके सिद्धांतों को स्थापित किया। लेकिन समय के साथ इसकी प्रतिष्ठा में कमी आई, और इसके पीछे कई ऐतिहासिक और सामाजिक कारण हैं। प्रोफेसर आनंद चौधरी, जो बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में रस शास्त्र के विशेषज्ञ और विभागाध्यक्ष रह चुके हैं, उनके अनुसार, आयुर्वेद का पहला बड़ा झटका तब लगा जब 9वीं-10वीं शताब्दी में इस्लामिक शासकों का भारत में आगमन हुआ। हालांकि, इन शासकों ने भारत की ज्ञान परंपरा को नष्ट नहीं किया, बल्कि उसे संरक्षित और प्रोत्साहित किया। रस शास्त्र का स्वर्णिम युग भी इसी काल में देखा गया। लेकिन असली पराभव तब शुरू हुआ जब 18वीं सदी में ब्रिटिश शासन ने भारत पर कब्जा जमाया।
ब्रिटिश शासकों की मानसिकता थी कि यूरोपीय ज्ञान ही श्रेष्ठ है। उन्होंने आयुर्वेद को एक “परिकल्पनात्मक विज्ञान” करार दिया और इसे वैज्ञानिक मान्यता देने से इनकार कर दिया। उनकी नीति थी कि भारतीय ज्ञान को कमतर आंका जाए और पश्चिमी चिकित्सा पद्धति (एलोपैथी) को बढ़ावा दिया जाए। इस मानसिक गुलामी का असर इतना गहरा था कि स्वतंत्रता के बाद भी आयुर्वेद को वह सम्मान नहीं मिला, जो उसे मिलना चाहिए था। 1920 और 1940 के कांग्रेस अधिवेशनों में आयुर्वेद को राष्ट्रीय चिकित्सा पद्धति बनाने का संकल्प लिया गया था, लेकिन 1947 में आजादी के बाद यह वादा पूरा नहीं हुआ। इंडियन मेडिकल काउंसिल (IMC) तो 1950 के दशक में बन गई, लेकिन सेंट्रल काउंसिल ऑफ इंडियन मेडिसिन (CCIM) का गठन 1970 में जाकर हुआ, वह भी दो वैद्यों—वैद्य अनंत शर्मा और पंडित साहब शर्मा—के अथक प्रयासों से। यह देरी आयुर्वेद के प्रति नीति निर्माताओं की उदासीनता को दर्शाती है।
वैश्विक मंच पर लोकप्रियता
आयुर्वेद का वैश्विक स्तर पर पुनर्जनन एक रोचक कहानी है। वैद्य बालेंदु प्रकाश, जो एक परंपरागत वैद्य के बेटे हैं और 1978 से आयुर्वेद के क्षेत्र में सुप्रसिद्ध वैद्य हैं, जानलेवा व प्राणघातक बीमारी क्रोनिक पैन्क्रियाटाइटिस के सफल उपचार में कॉपर मर्करी सल्फर का उपयोग खोजने वाले वैद्य हैं स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के राष्ट्रीय कैंसर नियंत्रण कार्यक्रम की सलाहकार समिति के सदस्य हैं, भारत सरकार ने उन्हें 1999 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया । वैद्य बालेंदु प्रकाश आयुर्वेद को वैश्विक स्तर पर ले जाने का श्रेय महर्षि महेश योगी और डॉ. दीपक चोपड़ा को देते हैं। महर्षि महेश योगी ने 20वीं सदी में योग को पश्चिमी देशों में लोकप्रिय बनाया। हालांकि, उनकी “उड़ने की कला” सिद्ध करने की कोशिश नाकाम रही, लेकिन इस असफलता के बाद उन्होंने आयुर्वेद की ओर रुख किया। आयुर्वेद के सिद्धांत—स्वास्थ्य, मानसिक शांति और आध्यात्मिकता—उन्हें पश्चिमी दुनिया के लिए आकर्षक लगे। इसके लिए उन्होंने डॉ. दीपक चोपड़ा का सहारा लिया।
डॉ. चोपड़ा, जो मूल रूप से भारत के एक सामान्य चिकित्सक थे, ने आयुर्वेद के सिद्धांतों को अंग्रेजी में अनुवादित कर पश्चिमी दुनिया के सामने पेश किया। उनकी किताबें, जैसे “परफेक्ट हेल्थ” और “क्वांटम हीलिंग”, बेस्टसेलर बन गईं। उन्होंने सांस नियंत्रण (प्राणायाम) और दीर्घायु के विचार को इस तरह प्रस्तुत किया कि यह मृत्यु से डरने वाली अमेरिकी संस्कृति के लिए आकर्षक बन गया। वैद्य बालेंदु कहते हैं, “अमेरिकी सोचते हैं कि वे कभी मरेंगे नहीं, जबकि हम भारतीय मानते हैं कि जो पैदा हुआ, वह मरेगा ही।” इस सांस्कृतिक अंतर ने आयुर्वेद को पश्चिम में एक नई पहचान दी। दीपक चोपड़ा ने महर्षि से अलग होकर अपनी राह बनाई, और उनकी लोकप्रियता ने आयुर्वेद को वैश्विक मंच पर स्थापित कर दिया।
भारत में आयुर्वेद की वापसी
पश्चिम से आयुर्वेद की स्वीकार्यता भारत में भी उसकी लोकप्रियता का कारण बनी। वैद्य बालेंदु बताते हैं कि 1990 के दशक तक भारत में आयुर्वेद को “पिछड़ा हुआ” माना जाता था। लेकिन जब पश्चिमी देशों ने इसे अपनाना शुरू किया, तो भारतीयों की सोच बदली। सोशल मीडिया और इंटरनेट के युग ने इस लोकप्रियता को और बढ़ाया। साथ ही, 2014 के बाद भारत सरकार ने आयुर्वेद को प्रोत्साहन देना शुरू किया। आयुष मंत्रालय का गठन, नीति आयोग में आयुर्वेद की चर्चा, और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इसे बार-बार बढ़ावा देना—इन सबने आयुर्वेद को एक नई भव्यता प्रदान की।
कोरोना महामारी ने भी आयुर्वेद की लोकप्रियता में बड़ा योगदान दिया। सरकार ने काढ़े और इम्युनिटी बढ़ाने वाले उपायों को बढ़ावा दिया। हालांकि, वैद्य बालेंदु इस पर सवाल उठाते हैं: “अगर आयुर्वेद से लोग ठीक हो रहे थे, तो सरकार ने हर किसी को वैक्सीन क्यों लगवाई? क्या यह लोकप्रियता एक प्रचार तंत्र था?” उनका मानना है कि आयुर्वेद को एविडेंस-बेस्ड बनाना जरूरी है, न कि केवल भावनात्मक या राजनीतिक आधार पर इसे आगे बढ़ाया जाए।
चुनौतियां और वास्तविकता
आयुर्वेद की बढ़ती लोकप्रियता के बावजूद, कई चुनौतियां बनी हुई हैं। प्रोफेसर चौधरी कहते हैं कि किसी भी विधा के विकास के लिए राजनीतिक समर्थन जरूरी है, लेकिन केवल समर्थन काफी नहीं। आयुर्वेद को वैज्ञानिक आधार पर सिद्ध करना होगा। वैद्य बालेंदु अपने अनुभव साझा करते हैं: “जब मैंने माइग्रेन पर शोध किया और लंदन व स्वीडन में पोस्टर प्रस्तुत किए, तो लोगों ने इसे स्वीकारा। लेकिन कई बार लोग आयुर्वेद को मेरे नाम से जोड़ते हैं, जो ठीक नहीं। यह आयुर्वेद की ताकत है, न कि मेरी।”
एक बड़ी समस्या यह भी है कि सोशल मीडिया पर आयुर्वेद को गलत तरीके से पेश किया जा रहा है। “आंवला खाओ, सब ठीक हो जाएगा” जैसे दावे आयुर्वेद के सिद्धांतों के खिलाफ हैं। वैद्य बालेंदु कहते हैं, “मुझे और मेरे पिता को आंवले से एलर्जी है। आयुर्वेद कहता है कि कोई भी चीज हर किसी के लिए अनुकूल नहीं होती।” स्वयंभू वैद्य और सेल्फ-मेडिकेशन की बढ़ती प्रवृत्ति भी आयुर्वेद की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा रही है।
भविष्य की राह
आयुर्वेद का भविष्य उज्ज्वल है, लेकिन इसके लिए कुछ कदम जरूरी हैं। पहला, इसे एविडेंस-बेस्ड बनाना होगा, जैसा कि प्रधानमंत्री ने भी कहा है। दूसरा, जनमानस में इसके प्रति जागरूकता बढ़ानी होगी, लेकिन सही तरीके से। तीसरा, आयुर्वेदिक संस्थानों को मजबूत करना होगा, ताकि युवा पीढ़ी इसे गंभीरता से अपनाए। आज जामनगर और जयपुर जैसे संस्थानों में MBBS छोड़कर बच्चे आयुर्वेद पढ़ने आ रहे हैं, जो एक सकारात्मक संकेत है।
अमेरिका में नेशनल सेंटर फॉर कॉम्प्लिमेंट्री एंड इंटीग्रेटिव हेल्थ (NCCIH) जैसे संस्थानों का उदाहरण लेते हुए भारत भी आयुर्वेद को मुख्यधारा में लाने की कोशिश कर रहा है। प्रोफेसर चौधरी कहते हैं, “आयुर्वेद जनमानस में वापस आ रहा है, क्योंकि यह न केवल बीमारी ठीक करता है, बल्कि जीवन को संतुलित करने का तरीका सिखाता है।”
आयुर्वेद का पराभव ब्रिटिश शासन और स्वतंत्रता के बाद की उदासीनता का परिणाम था, लेकिन इसका पुनर्जनन पश्चिमी स्वीकार्यता, सरकारी समर्थन और जन जागरूकता से हुआ। फिर भी, इसे छद्म विज्ञान कहने वालों से बचाने के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण जरूरी है। वैद्य बालेंदु का यह कथन सटीक है: “लोग कहते हैं कि मैंने आयुर्वेद को उठाया, लेकिन मैं कहता हूं कि आयुर्वेद ने मुझे उठाया।” आयुर्वेद की असली शक्ति इसके सिद्धांतों और मेहनतकश चिकित्सकों में है। अगर इसे सही दिशा दी जाए, तो यह न केवल भारत, बल्कि पूरी दुनिया के लिए स्वास्थ्य का आधार बन सकता है।
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