Dehradun (मोहन भुलानी ): देहरादून की चमचमाती इमारतों और शहरी चकाचौंध के बीच जब गढ़वाली होली गीतों की गूंज उठी, तो हर पहाड़ी हृदय मानो अपनी जड़ों तक लौटने को विवश हो गया। “राठ के होल्यारों ” तुमने जो सुर-तान छेड़ा, उसने उन लोगों की संवेदना को गहराई से स्पर्श किया, जिन्होंने कभी अपनी जन्मभूमि को छोड़कर शहरों की ओर मजबूरी में पलायन कर लिया था। होल्यारों के कंठ से निकले सुर सिर्फ गीत नहीं थे, बल्कि पहाड़ की उस माटी की पुकार थी, जिसे छोड़कर लोग शहरों की चकाचौंध में खो गए।
होल्यारों की प्रस्तुति ने पहाड़ी समुदाय को भावुक कर दिया। शहर की हाई-राइज सोसाइटियों में रहने वाली महिलाएँ, जो अपने पारंपरिक लोकगीतों को “पिछड़ेपन” की निशानी समझने लगी थीं, उनकी आँखों से आँसू छलक आए। उन आँसुओं में सिर्फ यादें नहीं, बल्कि एक अपराधबोध भी था—जैसे वे अपनी मिट्टी को भूलकर पाप कर बैठी हों। होल्यारों का यह प्रयास उस “गंवई खुशबू” का संदेशवाहक बन गया, जो शहर की एयर कंडीशनिंग में गुम हो चुकी थी।
राठ के होल्यारों की टीम का यह अभिनव प्रयास हमारी समृद्ध पर्वतीय सांस्कृतिक विरासत के लिए ऐसे ही था जैसे जेठ की तपती धूप में अचानक पड़ी बारिश की बौछारे । होल्यारों द्वारा होली खेलने की शैली से समाज में इस प्रयास का अत्यंत सकारात्मक और मार्मिक प्रभाव पड़ा है। जो लोग वर्षों पहले पहाड़ छोड़ चुके थे, वे भी इस प्रस्तुति को देखकर पलायन पर पुनर्विचार करने को मजबूर हो गए। यह शहरी अकेलेपन के खिलाफ एक सांस्कृतिक विद्रोह था। होल्यारों ने सिर्फ गीत नहीं गाए, बल्कि एक सवाल छोड़ गए: “क्या शहरों की चकाचौंध में हमने अपनी असली पहचान गँवा दी?”
होल्यारों की वेशभूषा, गायन शैली, और सबसे बढ़कर, गले लगाने का आत्मीय अंदाज—इन सबमें गंगा की पवित्रता और हिमालय की धवलता दृष्टिगोचर होती है । होल्यारों ने अपने गांवों की आत्मा को देहरादून के शहरी माहौल में सजीव कर दिया। होल्यारों का प्रयास न केवल एक सांस्कृतिक उत्सव है, बल्कि यह एक जागरूकता अभियान भी है, जिसने पलायन कर गए लोगों के भीतर अपने गांवों की सुध लेने की चेतना जागृत की है । होल्यारों का यह समर्पण पहाड़ों की संस्कृति को जीवंत बनाए रखने के लिए नितांत आवश्यक है।
राठ के होल्यारों तुम ऐसे ही अपने सुरों में संस्कृति की धारा को प्रवाहित करते रहो, ताकि आने वाली पीढ़ियां अपनी जड़ों से जुड़ी रहें और पहाड़ की संस्कृति अपने गौरवशाली स्वरूप में बनी रहे। आवश्यकता है कि हम ऐसे प्रयासों को केवल उत्सव तक सीमित न रखें, बल्कि इन्हें पहाड़ों के पुनर्जागरण का आधार बनाएँ। क्योंकि, जिस समाज की जड़ें मिट्टी से कट जाती हैं, उसकी पहचान भी धूमिल हो जाती है।