कभी-कभी जब हम सोचते हैं कि आजादी के बाद हमने क्या खोया और क्या पाया तो बहुत हताशा होती है। ‘आॅक्सफेम’ की विषमता पर आई रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत में आजादी के समय अमीर और गरीब में जो फासला था वह आज के मुकाबले काफी कम था। इसका सीधा और साफ मतलब यह निकलता है कि हमने पिछले सत्तर सालों में विकास तो जरूर किया लेकिन उसके लाभ को समावेशी तरीके से वितरित नहीं कर पाए।
इस विषमता के लिए हम केवल भ्रष्टाचार को दोष नहीं दे सकते। प्रगति के लिए बुनियादी जरूरत भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं, शुद्ध पेयजल और आवास को माना गया है। हमें केवल यह नहीं देखना चाहिए कि ये बुनियादी जरूरतें कितने नागरिकों को मिल रही हैं, हमें यह भी देखना होगा कि इनका स्तर या गुणवत्ता क्या है। शिक्षा वह भी है जो सरकारी पाठशाला में दी जाती है और वह भी है जो महंगे कॉन्वेंट स्कूलों में दी जाती है। पीने का पानी नदी, तालाब, कुएं, पक्के कुएं, नल आदि में भी मिलता हैऔर पिया जाता है तो आधुनिक तकनीक पर आधारित ‘आरओ’ से भी शुद्ध करके पिया जाता है। इलाज सरकारी अस्पताल में भी होता है तो फोर्टिस, मैक्स, अपोलो जैसे महंगे प्राइवेट अस्पतालों में भी होता है। कुछ शहरों में वायु प्रदूषण बहुत ज्यादा बढ़ गया है।
हमें लगता है कि इसकी मार सब पर बराबर पड़ रही है। लेकिन ऐसा है नहीं। सक्षम लोग हवा को शुद्ध करने वाली मशीन लगा रहे हैं। वे महंगी कार से चलते हैं, जिसके अंदर साफ-सुथरे रहते हैं मगर बाइक से, साइकिल से या पैदल चलने वालों का क्या! झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों का क्या! विकास की कीमत आखिर कब तक गरीब, शोषित वर्ग चुकाता रहेगा? हम अक्सर समाचारों में सुनते हैं कि अमुक ने इतने लाख रुपए की रिश्वत ली, फलां अधिकारी ने इतने करोड़ की संपत्ति जुटा ली और सोचते हैं कि ऐसे लोगों की वजह से ही देश पिछड़ रहा है।
लेकिन धन शोधन या अन्य जटिल मगर सुरक्षित तरीकों से अरबों-खरबों रुपए की कर चोरी करने, अपने लाभ को ‘टैक्स हैवन’ देशों में भेजने वाले बड़े कारपोरेट घरानों, सेलेब्रिटी (पनामा पेपर के अनुसार) आदि के बारे आम जनता को न तो ज्यादा पता चलता है और न ही उसे फर्क पड़ता है। कोई दो जून की रोटी को तरस रहा है तो कोई अपने परिवार के हर सदस्य के लिए आलीशान कारें खरीद रहा है। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि क्या है जलवायु परिवर्तन या फिर वैश्विक ताप वृद्धि। सोचें तो वे जिन्हें सर पर छत मयस्सर नहीं, जिनके पास तन ढंकने के लिए पर्याप्त कपड़े नहीं।