भीमा-कोरेगांव युद्ध के दो सौ साल पूरे होने पर पुणे में भड़की जातीय हिंसा को शांत करने के लिए एक तरफ राज्य सरकार स्थिति पर नियंत्रण की कोशिशों में लगी हुई है, तो दूसरी ओर राजनीतिक दलों ने इस घटना को भी सियासती मुद्दा बना लिया है। यह दुर्भाग्य पूर्ण है, इस संवेदनशील मसले पर आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति नहीं की जानी चाहिए। अगर राजनीतिक दल वास्तव में दलितों के मान-सम्मान की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं तो फिर दलितों के प्रति मानसिकता में परिवर्तन लाने का काम सबसे पहले उन्हें अपने भीतर से शुरू करना चाहिए।
हिंसा की जड़ कहां है और इस हिंसा का जिम्मेदार कौन है, यह पता लगाने के लिए कानून को स्वतंत्र और निष्पक्ष ढंग से अपना काम करने देना चाहिए। अच्छी बात है कि महाराष्ट्र सरकार ने हिंसा के पीछे छिपे सच को सामने लाने के लिए न्यायिक जांच के आदेश दे दिए हैं। लेकिन राजनीतिक दलों को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि वोट बैंक की सस्ती सियासत कहीं सामाजिक ताने-बाने को भंग न कर दे। साथ ही जातीय हिंसा की यह आग अन्य इलाकों तक न फैले, इस पर ध्यान देना सर्वाधिक जरूरी है।
आज दलित समाज अपने अधिकारों के प्रति सचेत और जागरूक हो रहा है। दलित अब अपने बलबूते सामाजिक स्वतंत्रता हासिल करने के लिए संघर्षरत भी हैं। लेकिन सामाजिक समानता तथा स्वतंत्रता की महत्त्वपूर्ण लड़ाई जीतने के लिए समाज के हर तबके को सहयोग देना होगा। दलितों की अस्मिता की लड़ाई को राजनीतिक भाषणों से ऊपर उठ कर समाज के पीड़ित वर्ग के वास्तविक हितों की लड़ाई बनाना जरूरी है, क्योंकि यह मानवीय अधिकार की लड़ाई है। आज समूचे भारतीय समाज को सामंतवादी जातिगत पूर्वग्रहों से पूरी तरह मुक्त करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ने की जरूरत है। इसके लिए सामाजिक संगठनों को भी आगे आकर पहल करनी चाहिए। साथ ही सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह जाति या धर्म के नाम पर किसी भी तरह के टकराव की स्थितियां न पैदा होने दे तथा ऐसे कार्यक्रमों, नीतियों और योजनाओं पर लगातार ध्यान दे जिनसे समाज के अलग-अलग वर्गों के बीच जाति की जड़ता टूटे तथा सामाजिक समरसता और सद््भाव का माहौल बन सके।